सहारनपुर में दलित लड़ रहे है इंसाफ की लड़ाई

सालू खान

पिछले बीस दिनों में सहारनपुर तीन बार हिंसा में जल चुका है. शांति क़ायम करने के लिए प्रशासन ने सभी पक्षों के साथ बैठक की. इसमें दलित और ठाकुरों के साथ-साथ तमाम राजनीतिक दलों ने भी हिस्सा लिया. लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि वहां का प्रशासन तभी जगा जब दलित समाज के लोग ठाकुरों पर पलटवार करने लगे? क्योंकि पुलिस को तब तक कोई दिक्कत नहीं थी; जब तक दलित और मुसलमानों के बीच तनाव की खबरें आ रही थी. लेकिन जैसे ही दलित युवाओं ने ठाकुरों को खदेड़ना शुरू किया, अघोषित हिन्दू राज्य का प्रशासन सजग हो गया.

 20 अप्रैल को सड़क दुधली में बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के जुलूस के बहाने दलितों और मुसलमान के बीच एक खाई पैदा करने की कोशिश की गई. मक़सद हिन्दू कार्ड खेलने का था, ताकि दलितों को बीजेपी के साथ मज़बूती से जोड़ा जा सके. जैसा कि उत्तर प्रदेश के चुनावों के वक्त हुआ था, लेकिन यह ज्यादा नहीं चल सका. 5 मई को शब्बीरपुर गांव में ठाकुरों की तरफ़ से आगज़नी की वारदात को वह रोक नहीं पाई. ठाकुरों ने दलित समाज के दर्जनों घरों में आग लगा दी. ठाकुर घमंड में घूम रहे थे कि उन्होंने दलितों को उनकी ‘औकात’ बता दी, लेकिन दलितों ने उनका यह घमंड तीन दिन बाद ही अपने पैरों तले कुचल दिया.

नौ मई को दलितों की तरफ़ से बदले की कार्रवाई की गई. कहा जा रहा है कि इसमें किसी ‘भीम सेना’ नाम के दलित युवाओं के संगठन का हाथ है. चाहे उस कार्रवाई के पीछे कोई भी संगठन हो यह मजह न्याय की एक कवायद थी, क्योंकि हर रोज पीटे जा रहे दलितों को न तो वहां का प्रशासन न्याय देता है और न ही उन्हें कोर्ट तक पहुंचने दिया जाता है. लिहाजा सालों से दलित अपने अपमान का घूंट पी रहे हैं. सहारनपुर में उसी दलित समाज के युवाओं का गुस्सा फूटा है. खबर आई है कि उन्होंने ठाकुरों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. तमाम प्रगतिशील लोग इसकी निंदा कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह सोचना चाहिए की आखिरकार यह स्थिति क्यों आ पड़ी, जब शांतिप्रिय दलित समाज बदले की भावना लिए सामने आ गया.

जो मीडिया सहारनपुर में पत्थरबाजी की घटनाओं को कश्मीर से जोड़ रहा है, उसने दलितों के घर जलाए जाने की खबरों को तालिबान के दहशतगर्दों से क्यों नहीं जोड़ा?  दलितों की बेटियों-बहनों से बलात्कार किए जाने की खबरों को कभी वहशीपना क्यों नहीं लिखा? क्यों सिर्फ ''दलितों के घर जलाए'' और ''दलित युवती से बलात्कार'' जैसी सपाट खबरें प्रकाशित करते रहें? इस गुस्से में पुलिस पर भी हमले हुए, ऐसा नहीं होना चाहिए था. लेकिन अब पुलिस को भी अपने ‘इंसाफ’ के तरीके पर सोचना होगा. उन्हें अब पुलिस थाने में इंसाफ मांगने आए दलितों को फटकार कर भगाने की बजाय इंसाफ दिलाने के लिए आगे आना होगा. तभी बदले की इस कार्रवाई को रोका जा सकेगा. क्योंकि कानून ने जब-जब पीड़ितों को न्याय दिलाने में देरी की है और अपनी आंखें मूंदी है, तब-तब पीड़ितों ने खुद आगे बढ़कर इंसाफ के लिए संघर्ष किया है.

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